Thursday, December 1, 2011

बच्चों में बढ़ता मोटापा चिंताजनक...

दुनियाभर में बच्चों में मोटापा काफी बढ़ रहा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक इंग्लैंड और अमरीका में 20 फीसदी बच्चे मोटापे का शिकार हैं और यह संख्या पिछले बीस साल में तीन गुना बढ़ी है। भारत में भी खासकर महानगरों में मोटे बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यहां करीब 10 फीसदी बच्चे मोटापे के शिकार हैं। ऐसे में ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, दिल से जुड़ी बीमारियां जाने अनजाने इन बच्चों को अपनी चपेट में लेती जा रही है। खाने-पीने से लेकर खेलने-कूदने तक का वक्त बच्चों के लिए निर्धारित होना जरूरी है। अक्, रेड मीट, जंक फूड वगैरह। येलो फूड सीमित मात्रा में खाएं जैसे चावल, दाल, रोटी, राजमा इनमें फाइबर भी होता है और फैट भी कम होता है। ग्रीन लाइट फूड खूब खाएं। इनमें फैट नहीं होता साथ ही काफी मात्रा में विटामिंस और मिनरल्स होते हैं। सभी हरी सब्जियां और फल इसमें आते हैं। बच्चों को मोटापे से बचाने के लिए यह जरूरी है कि वह जितना खाएं उतना खर्च भी करें। आजकल बच्चे स्कूल भी पैदल या साइकिल से नहीं जाते। ज्यथ। टर व्यायाम भी नहीं करते और टीवी के सामने बैठे रहते हैं और इंडोर गेम खेलना पसंद करते हैं। इससे मोटापा बढ़ता है। मोटापे की वजह से बच्चों को कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं। हालांकि कई ऐसी बीमारियां भी हैं, जिसकी वजह से बच्चों में मोटापा बढ़ता है। इनका इलाज डॉक्टरी सलाह से ही संभव है। आमतौर पर जो मोटापा बच्चों में दिखता है इनका इलाज खानपान में सुधार और शारीरिक व्यायाम से ही कम हो सकता है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि बच्चे जितनी कैलोरी लेते हैं उतना खर्च नहीं करते हैं। इसके लिए अगर पैरेंट्स कुछ बातों का ध्यान रखें तो बच्चे को मोटापे से बचाया जा दात है। शारीरिक व्यायाम जैसे जॉगिंग, दौड़ना, खेलना बच्चों के लिए बहुत जरूरी है। ऐसा देखा जाता है कि मोटापे के शिकार बच्चे स्वभाव से आलसी होते हैं इसलिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा शारीरिक श्रम करने के लिए प्रेरित करें। घर के छोटे-छोटे काम में उससे सहयोग लें। साप्ताहिक छुट्टी पर बच्चों को जू, पार्क, म्यूजियम लें जाएं ताकि पैदल घूमना अच्छा लगे। इस बात पर पूरी नजर रखें कि बच्चा क्या और कितनी मात्रा में खा रहा है। उसे सीमित मात्रा में संतुलित और पौष्टिक आहार दें। पिज्जा, बर्गर, आइसक्रीम, मिठाई और तली हुई चीजों से दूर रखें। अक्सर परिवार के बुजुर्ग सकता है। शारीरिक व्यायाम जैसे जॉगिंग, दौड़ना, खेलना बच्चों के लिए बहुत जरूरी है। ऐसा देखा जाता है कि मोटापे के शिकार बच्चे स्वभाव से आलसी होते हैं इसलिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा शारीरिक श्रम करने के लिए प्रेरित करें। घर के छोटे-छोटे काम में उससे सहयोग लें। साप्ताहिक छुट्टी पर बच्चों को जू, पार्क, म्यूजियम लें जाएं ताकि पैदल घूमना अच्छा लगे। इस बात पर पूरी नजर रखें कि बच्चा क्या और कितनी मात्रा में खा रहा है। उसे सीमित मात्रा में संतुलित और पौष्टिक आहार दें। पिज्जा, बर्गर, आइसक्रीम, मिठाई और तली हुई चीजों से दूर रखें। अक्सर परिवार के बुजुर्ग बच्चों को जबरदस्ती ज्यादा खिलाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। इसलिए आप बुजुर्गों को प्यार से समझाएं और उन्हें मोटापे के खतरे के बारे में बताएं। बच्चे की इस समस्या को दूर करने में परिवार और माता-पिता का सहयोग बहुत जरूरी है। अगर बच्चे को मोटापे की समस्या हो तो उसे घर की बनी चीजें खाने के लिए प्रेरित करें और खुद भी लंच या डिनर के लिए बहुत ज्यादा बाहर न जाएं। बच्चे के लिए टीवी देखने का समय निर्धारित करें। उसे ज्यादा देर तक टीवी देखने और कंप्यूटर गेम्स न खेलने दें। भोजन में कम तेल, घी और शक्कर का उपयोग करें। खाने में चावल, आलू और मीठी चीजों का प्रयोग कम करें। संतरा, नाशपाती, तरबूज, पपीता और गाजर का सेवन ऐसे बच्चों की सेहत के लिए फायदेमंद साबित होता है। हरी सब्जियों और अंकुरित दालों का प्रयोग करें। ऐसे बच्चों का मजाक न उड़ाएं। उन्हों भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है। कई बार मोटोपा जेनेटिक भी होता है। अक्सर परिवार में दो तरह का मोटापा पाया जाता है। पहला जीन में ही मोटापा का होना और दूसरा पारिवारिक खान-पान का तरीका। कई घरों में तली-भुनी चीजें, पिज्जा, बर्गर बड़े शान से खाया जाता है। ऐसे परिवार के बच्चे भी मोटे हो जाते हैं। मोटापा कई बीमारियों की जड़ है और घर है। इस वजह से एंडोक्राइनल दिक्ततें जैसे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, पॉलिसिस्टिक ओवरी, हाइपोगोनैडिस्म होता है। मोटापे की वजह से कार्डियोवैस्कुलर डिजीज जैसे हाइपरटेंशन, हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल-गाल स्टोन, कब्ज, लीवर पर फैट्स जमने के साथ-साथ सांस संबंधी दिक्कतें जैसे खर्राटे लेना, स्लीप एपेनिया, अस्थमा आदि बीमारी हो सकती है। मोटापे का बच्चों पर मनोवैज्ञानिक असर भी पड़ता है। दोस्तों के बीच उसे कई बार हंसी का पात्र बनना पड़ता है। पढ़ाई में अच्छा होने के बावजूद उसका आत्मविश्वास कम हो जाता है। चिंता, डिप्रेशन, इटिंग डिसऑर्डर और अकेलापन बच्चों में घर कर जाता है। मोटापे की होम्योपैथिक चिकित्सा सामान्यतौर पर ऐसे बच्चों को दवाइयों की जरूरत नहीं होती और खानपान में उचित नियंत्रण रख कर मोटापे को कंट्रोल किया जा सकता है। कई लोग डायटिंग शुरू कर भोजन कम कर देते हैं। इससे उनका वजन तो कम नहीं होता, उल्टे वे पोषणरहित भोजन के बिना बीमार हो जाते हैं। सप्ताह में एक या दो दिन उपवास करें, उस दिन फलाहार लें। भोजन की मात्रा कम जरूर करें, जब वजन घटने लगे, तब व्यायाम शुरू करें तो फायदा हो सकता है। जब सब कुछ करने पर भी वजन कम ना हो तो ऎसी दवाइयां लेनी चाहिये जिनका कोई दुस्प्रभाव ना हो। होम्योपैथी सहज, सस्ती और संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। ये औषधियाँ शरीर के किसी एक अंग या भाग पर कार्य नहीं करतीं, बल्कि रोगी के संपूर्ण लक्षणों की चिकित्सा करती है। होम्योपैथिक दवाएँ जो वजन कम करने में सहायक हैं वे इस प्रकार हैं: कल्केरिया कार्ब, फ़ुक्स वर्सिकोलर, थायरोडिनम, केलोट्रोपिस, फायटोलाका बेरी, लायकोपोडियम, आदि। आजकल तो कुछः दवा र्निमाता कंपनियों ने पेटेंट प्रोडक्ट भी बना रखे हें जो भी फायदा करते हें जेसे कि बी-ट्रिम, सलाइमेक्स, फ़िगर-ट्रिम आदि। उपरोक्त दवाये केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है। कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करें।

Tuesday, June 28, 2011

आंखों का रखें खास ख्याल

गर्मी में तेज धूप से और बदलते मौसमों में आंखों पर काफी असर पड़ता है। आज के भौतिक युग में एयर कंडीशनर तेज धूप और खतरनाक किरणों से तो हमें जरूर बचाता है लेकिन आंखों के चारों ओर होने वाली ड्राइनेस से नहीं।
गर्मी में चलने वाली हवाएं भी हमारी आंखों के लिए बेहद नुकसानदेह हो सकती हैं। साथ ही हमारे लाइफस्टाइल में कंप्यूटर और टीवी का इस्तेमाल भी आंखों को कमजोर कर रहा है। ऐसे में ईश्वर द्वारा मिले इस अनमोल तोहफे का खास ख्याल रखना चाहिए।
गर्मी में आंखों की एक्सरसाइज और खानपान का ध्यान रखना चाहिए।
आंखों की देखभाल के साथ उन्हें प्रोटीन, विटामिन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है और साथ ही एक्सरसाइज की भी। गर्मी में जूस और फल से सेहत के साथ आंखों को भी काफी आराम पहुंचता है।
आंखों को सबसे ज्यादा फायदा विटामिन ‘ए’ से होता है। दूध, अंडे, हरी सब्जियां और फल विटामिन ‘ए’ से भरपूर होते हैं।
फलों में अनानास ऐसा फल है जिससे आंखों को स्वस्थ रखने में काफी फायदा होता है। अनानास हडि्डयों की मजबूती के साथ कोशिकाओं के निर्माण में काफी सहायक होता है। एक दिन में अगर एक कप अनानास का जूस पिया जाए तो यह शरीर की मांग पर 73 फीसदी एनर्जी देता है। इसके अलावा सेब और स्ट्रॉबेरी भी काफी फायदेमंद है।
इसके अलावा गर्मी और बरसात के मौसम में डॉक्टर की सलाह से यूफ्रेशिया या ममिरा आई- ड्राप्स दिन में दो-तीन बार डालते रहें। आई ड्रॉप भी डालना आंखों के लिए फायदेमंद होता है। इससे भी आंखों की कोशिकाओं को आराम मिलता है।
सादे पानी से आंखें धुलना मुफ्त का इलाज है। गर्मी में हमें अपनी आंखें लगातार सादे और ठंडे पानी से धोते रहना चाहिए। इससे आंखों की हीटवेव से बचाव तो होता ही है गंदगी भी आंखों से निकलती रहती है।
इसके अलावा लगातार आंखों पर जोर नहीं डालना चाहिए। इसके लिए आंखों की मसल्स की एक्सरसाइज भी करनी चाहिए। पुतलियों को खोलना बंद करना चाहिए और पुतलियों को गोल-गोल घुमाना चाहिए। धूप में निकलते समय बिना किसी हिचक के बड़े ग्लास वाला धूपी चश्मा भी प्रयोग करना चाहिए।
मौसम का पारा जैसे-जैसे चढ़ता है वैसे-वैसे हमें अपनी आंखों के प्रति और सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि आंखों को सुकून मिलने का मतलब है पूरे शरीर को आराम।

कम भूख लगना एक बीमारी…

वज़न कम करने के लिए कम भोजन करना या मोटे होने के डर से भूख का कम लगना भी एक बीमारी है। इस बीमारी को ऐनेरोक्सिया नर्वोसा कहा जाता है।जिन लोगों को यह बीमारी होती है वे लोग कम वज़न होने के बावजूद भी मोटे होने की भावना से ग्रसित होते हैं।

ऐनेरोक्सिया की बीमारी दो प्रकार की होती है, पहली वो जिसमें लोग अपना वज़न कम करने के लिए कम खाते हैं और दूसरी वह जिसमें लोग बिलकुल खाना छोड़ देते हैं।
इस बीमारी का कोई प्रमुख कारण नहीं है लेकिन यह बीमारी किसी शारीरिक, मानसिक या सामाजिक परेशानी की वजह से उत्पन्न हो सकती है। कुछ लोगों में यह बीमारी अनुवांशिक होती है। इस बीमारी से ग्रसित लोगों में दिमाग में पाया जाने वाला कोर्टिसॉल हारमोन की मात्रा ज़्यादा हो जाती है और भावनाओं से संबंधित हारमोन की मात्रा कम हो जाती है। इस बीमारी मे लक्षणों का आसानी से पता लगाया जा सकता है। जिन लोगों को यह बीमारी होती है वे वज़न कम करने के लिए हमेशा कम आहार लेना पसंद करते है।

शारीरिक कारण- इसके शारीरिक कारणों में शामिल हैं-अचानक अधिक वज़न का कम होना, बालों का टूटना, रूखी त्वचा, कमज़ोर नाखून, कम रक्तचाप, थकान, उठने बैठ्ने और खडे होने मे चक्कर आना, काम करने का मन न करना, शरीर मे तापमान की कमी, तव्चा मे पीलापन, दिल मे असामान्य धड्कन, सांस लेने मे तकलीफ, सीने मे दर्द, तलवो व हथेलियों मे ठंडापन और लगातार रहने वाला सिर मे दर्द होता है। यदि इस तरह के लक्षण महसूस हो तो तुरन्त किसी योग्य डाक्टर से परामर्श ले लेना चाहिए।

मानसिक कारण- कमज़ोर याददाश्त, निर्णय लेने में परेशानी, जल्द ही चिढ़ जाना आदि।

आचरण संबंधित कारण- खाने की मात्रा और उससे मिलने वाली ऊर्जा के बारे में गहन चिंतन, खाने में छोटे-छोटे भागों में तोड़कर खाना, भूख ना लगने का बहाना बनाना आदि।

यह बीमारी जितनी मामूली लगती है, उतनी है नहीं। इस बीमारी से ग्रसित 50 प्रतिशत लोग भूख और कमज़ोरी की वजह से अपनी जान खो देते हैं। इसकी वजह से किडनी, लीवर और दिल से जुड़ी बिमारियाँ होने का खतरा भी होता है।
इस बीमारी के इलाज के लिए तुरंत ही चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए। इसके इलाज का प्रमुख भाग वजन बढ़ाने पर ध्यान देना होता है।

Wednesday, November 17, 2010

शीघ्रपतन एवं होम्योपैथीक उपचार

शीघ्रपतन एक ऐसा रोग है जो आज के नवयुवकों में महामारी की तरह फैल रहा है। एक अमेरिकी सर्वे के अनुसार दुनिया की 4० प्रतिशत पुरूष शीघ्रपतन की समस्या के शिकार हैं। हालांकि यह समस्या गर्भधारण या जनन के लिए बाधा उत्‍पन्न नहीं करती है, फिर भी यह आपके स्वस्थ शरीर और अच्छे व्यक्‍ितत्व के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। यह रोग युवकों को शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी नुकसान पहुंचा रहा है। असल में शीघ्रपतन है क्या यह बात जानना जरूरी है क्योंकि बहुत से युवक तो सिर्फ इसके नाम से ही बुरी तरह भयभीत हो जाते हैं। पुरुष की इच्छा के विरुद्ध उसका वीर्य अचानक स्खलित हो जाए, स्त्री सहवास करते हुए संभोग शुरू करते ही वीर्यपात हो जाए और पुरुष रोकना चाहकर भी वीर्यपात होना रोक न सके, अधबीच में अचानक ही स्त्री को संतुष्टि व तृप्ति प्राप्त होने से पहले ही पुरुष का वीर्य स्खलित हो जाना या निकल जाना, इसे शीघ्रपतन होना कहते हैं। शीघ्र पतन की सबसे खराब स्थिति यह होती है कि सम्भोग क्रिया शुरू होते ही या होने से पहले ही वीर्यपात हो जाता है। सम्भोग की समयावधि कितनी होनी चाहिए यानी कितनी देर तक वीर्यपात नहीं होना चाहिए, इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है। यह प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति पर निर्भर होता है। शीघ्रपतन की बीमारी को नपुंसकता श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह बीमारी पुरुषों की मानसिक हालत पर भी निर्भर रहती है। मूलरूप से देखा जाय तो 95 फीसदी शीघ्रपतन के मामले मानसिक हालत की वजह से होते हैं और इसके पीछे उनमें पाई जाने वाली सेक्स अज्ञानता व शीघ्रपतन को बीमारी व शीघ्रपतन से संबंधी बिज्ञापन होते हैं। इस समस्‍या से ग्रसित व्‍यक्‍ित के स्वभाव में सबसे पहले परिवर्तन आता है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि इस परेशानी की वजह से पीडि़त व्‍यक्‍ित का स्‍वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। वह अक्‍सर सिरदर्द जैसे शा‍रीरिक समस्‍याओं से भी ग्रसित हो सकता है या कुछ समय के बाद सेक्स में अरूचि भी आ जाने की संभावना रहती है। इसके अलावा शारीरिक दुर्बलता भी हो सकती है। आज भी बहुत से लोग इस समस्या को गंभीरता से नहीं लेते हैं। जो लेते भी हैं वह इस समस्‍या को किसी के सामने रखने से डरते हैं। यह समस्‍या असाध्‍य नहीं है। लेकिन दुर्भाग्‍य से इसके उपचार को लेकर लोगों में अनेक तरह की भ्रांतियां फैली हुई हैं। जबकि कुछ उपयोगी दवाएं एवं सेक्‍स के कुछ तरीकों में परिवर्तन करके इस समस्‍या से निजात पाया जा सकता है।

शीघ्रपतन के स्तर:
मशहूर ब्रिटिश यौन विशेषज्ञ सी. डब्ल्यू. हेस्टिंग्स के अनुसंधानों के परिणामों के अनुसार शीघ्रपतन के चार स्तर होते हैं जो अनेक कारकों के आधार पर निर्धारित किया जाता है, जैसे वह किस कारण से हो रहा है, कितना गंभीर है और रोगी कितने समय से उससे पीड़ित रहा है। इनमें से प्रत्येक स्तर उसके कारणों से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

स्तर १: यह किशोरों में बहुत सामान्य होता है और इस स्तर की विशेषताओं में शामिल हैं किशोरावस्था और पूर्वकिशोरावस्था में खराब हस्तमैथुन आदतें। बहुत तेजी से हस्तमैथुन करने से, क्योंकि यह डर बना रहता है कि कोई पकड़ न ले, स्खलनीय प्रतिवर्ती क्रिया का असली मकसद ही खारिज हो जाता है, और उसके स्थान पर बहुत जल्द चरम स्थिति (ओर्गैसम) तक पहुंचने की आवश्यकता सर्वोपरि महत्व धारण कर लेती है। उचित उपचार विधि अपनाकर रोगी कुछी ही दिनों में पूरी तरह ठीक हो जाता है।
स्तर २: आमतौर पर यह युवा वयस्कों और कभी-कभी किशोरों को पीड़ित करता है। कार्य से संबधित अथवा निजी समस्याएं, जिनमें तनावपूर्ण और कठिन स्कूल दिनचर्या भी शामिल है, बिना किसी चेतावनी के शीघ्रपतन स्तर 2 शुरू करा सकती हैं। शीघ्रपतन के स्तर 1 के ही समान निदान होने पर इसका भी आसानी से इलाज हो सकता है।
स्तर ३: इस स्तर का शीघ्रपतन स्तर 2 के शीघ्रपतन के ठीक से इलाज न होने के फलस्वरूप होता है। बहुत विरल मामलों में अत्यंत मानसिक या दिनचर्या संबंधी दबाव महसूस कर रहे युवा पुरुषों में भी यह स्वतः प्रकट हो सकता है। इस समस्या का कारण मस्तिष्क में सेरोटोनिन और डोपामाइन के स्तरों में स्थायी असंतुलन हो जाना है, जो यौन आवेश को बहुत बढ़ा देता है जिसके कारण वीर्य स्खलनीय प्रतिवर्ती क्रिया चालू हो जाती है। इस स्तर के शीघ्रपतन का तुरंत इलाज होना चाहिए अन्यथा यह यौन अक्षमता* में बदल सकता है, जो कहीं अधिक जटिल रोग-स्थिति होती है।
स्तर ४: यह शीघ्रपतन का सबसे गंभीर स्थिति है क्योंकि यह अक्षमता का रूप ले चुकी होती है, इसी कारण इस स्थिति का ईलाज मुश्किल होता है।

शीघ्रपतन का उपचार
जब आप शीघ्रपतन से पीड़ित हों, तो यह ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि वह हर स्थिति में इलाज से ठीक हो जाता है और इसके सबसे गंभीर मामले भी लाइलाज नहीं हैं। इस समस्‍या को भी एक आम शारीरिक परेशानी की तरह लें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप शांत रहते हुए समस्या का तुरंत इलाज कराएं। आम तौर पर बिना इलाज कराए आप जितना अधिक समय बिताएंगे, समस्या उतनी ही उलझती जाएगी और उसका इलाज उतना ही कठिन होता जाएगा। शीघ्रपतन सभी पुरुषों को एक ही जैसे पीड़ित नहीं करता है। जो व्यक्ति स्त्री योनी में प्रवेश करने के पूर्व वीर्य स्खलन करता हो, और जो व्यक्ति संभोग क्रिया के पूरा हो जाने बाद वीर्य स्खलन करता हो, दोनों में एक ही प्रकार की समस्या नहीं है। इसलिए शीघ्रपतन का इलाज भी अलग-अलग होता है और वह शीघ्रपतन के प्रकार के अनुरूप होता है। होमियोपैथी में शीघ्रपतन का कारगर इलाज है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर शीघ्रपतन के अलग-अलग लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज किया जाए तो बीमारी पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है।

होम्योपैथिक औषधियां: टेर्नेरा(डेमियाना), कोनियम, एसिड फॉस, सेलिक्स नाईग्रा, केलेडियम, सेलिनियम, विथानिया सोम्निफ़ेरा, य्होमबिनम, लाईकोपोडियम, बुफ़ो-राना आदि लक्षणानुसार लाभप्रद है। यह दवायें केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है। कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे, क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है।

Friday, November 12, 2010

अस्थमा जानकारी एवं उपचार


अस्थमा एक ऐसी बीमारी है जहां पर स्वासनली या इससे संबंधित हिस्सों में सूजन के कारण फेफडे में हवा जाने के रास्ते में रूकावट आती है, जिससे सांस लेने में तकलीफ होती है| आपकी शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हवा का आपके फ़ेफ़डों से अन्दर और बाहर आना-जाना जरुरी है। जब फ़ेफ़डों से बाहर हवा का प्रवाह रुकता है तो बासी हवा फ़ेफ़डों में बन्द हो जाती है। इससे फ़ेफ़डों के लिए शेस शरीर को प्रयाप्त आक्सिजन पहुंचाना कहीं मुश्किल हो जाता है। जब एलर्जन्स या इरिटेट्स स्वासनली में सूजे हुए हिस्से के संपर्क में आते है तो पहले से ही संवेदनशील स्वासनली सिकुडकर और भी संकरी हो जाती है जिससे व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होने लगती है|

अस्थमा से जुडे लक्षण -
१ सांस का जल्दी-जल्दी लेना
२ सांस लेने में तकलीफ
३ खांसी के कारण नींद में रूकाबट
४ सीने में कसाव या दर्द

अस्थमा के कारण -
१. पुश्तैनी मर्ज - उन बच्चों में अस्थमा की शिकायत ज्यादा होती है जिनकी फैमिली हिस्ट्री अस्थमा की होती है।
२. एलर्जी - एलर्जी के कई कारण हो सकते हैं। मसलन, खाने-पीने की चीजों में रासायनिक खाद का ज्यादा इस्तेमाल, धूल, मिटटी, घास, कुत्ते-बिल्ली जैसे बालों वाले जानवर, कुछ दवाएं और घर के अंदर सीलन आदि।
३. इन्फेक्शन- सांस की नली में कुछ बैक्टीरिया या वायरस के जाने से अंदर सूजन हो जाती है और सांस की नलियां सिकुड जाती हैं। इससे सांस लेने और छोड़ने में काफी परेशानी होती है।
४. वातावरण - सड़को पर अंधाधुंध बढ़ रही गाड़ियों की संख्या के अलावा विलायती बबूल जैसे पेड़ भी एलर्जी की समस्या बढ़ाने का काम कर रहे हैं। इसके अलावा मौसमी बदलाव भी इसमें अहम भूमिका निभाता है। खासतौर से अक्टूबर-नवंबर और फरवरी-मार्च के महीने में समस्या काफी बढ़ जाती है।
५. मनोवैज्ञानिक - अस्थमा के कुछ मनौवैज्ञानिक कारण भी देखे गए हैं, जिनका प्रभाव बच्चों पर सबसे ज्यादा होता है। मसलन, अगर मां या पिता किसी बात को लेकर बच्चे को बहुत ज्यादा डांटते है तो डर से बच्चे के अंदर घबराहट की एक टेंडेंसी डेवेलप हो जाती है, जो कई बार आगे चलकर सांस की दिक्कत में बदल जाती है।

अस्थमा - क्या करें और क्या न करें
ऐसा करें
१ धूल से बचें और धूल -कण अस्थमा से प्रभावित लोगों के लिए एक आम ट्रिगर है|
२ एयरटाइट गद्दे .बॉक्स स्प्रिंग और तकिए के कवर का इस्तेमाल करें ये वे चीजें है जहां पर अक्सर धूल-कण होते है जो अस्थमा को ट्रिगर करते है।
३ पालतू जानवरों को हर हफ्ते नहलाएं.इससे आपके घर में गंदगी पर कंट्रोल रहेगा|
४ अस्थमा से प्रभावित बच्चों को उनकी उम्र वाले बच्चों के साथ सामान्य गतिविधियों में भाग लेने दें|
५ अस्थमा के बारे में अपनी और या अपने बच्चे की जानकारी बढाएं इससे इस बीमारी पर अच्छी तरह से कंट्रोल करने की समझ बढेगी|
६ बेड सीट और मनपसंद स्टफड खिलोंनों को हर हफ्ते धोंए वह भी अच्छी क्वालिटीवाल एलर्जक को घटाने वाले डिटर्जेंट के साथ|
७ सख्त सतह वाले कारपेंट अपनाए|
८ एलर्जी की जांच कराएं इसकी मदद से आप अपने अस्थमा ट्रिगर्स मूल कारण की पहचान कर सकते है|
९ किसी तरह की तकलीफ होने पर या आपकी दवाइयों के आप पर बेअसर होने पर अपने डॉक्टर से संर्पक करें|

ऐसा न करें
१ यदि आपके घर में पालतू जानवर है तो उसे अपने विस्तर पर या बेडरूम में न आने दें|
२ पंखोंवाले तकिए का इस्तेमाल न करें|
३ घर में या अस्थमा से प्रभावित लोगों के आस -पास धूम्रपान न करें संभव हो तो धूम्रपान ही करना बंद कर दें क्योंकि अस्थमा से प्रभावित कुछ लोगों को कपडों पर धुएं की महक से ही अटैक आ सकता है|
४ मोल्ड की संभावना वाली जगहों जैसे गार्डन या पत्तियों के ढेरों में काम न करें और न ही खेलें|
५ दोपहर के वक्त जब परागकणों की संख्या बढ जाती है बाहर न ही काम करें और न ही खेलें|
६ अस्थमा से प्रभावित व्यक्ति से किसी तरह का अलग व्यवहार न करें|
७ अस्थमा का अटैक आने पर न घबराएं.इससे प्रॉब्लम और भी बढ जाएगी. ये बात उन माता-पिता को ध्यान देने वाली है जिनके बच्चों को अस्थमा है अस्थमा अटैक के दौरान बच्चों को आपकी प्रतिक्रिया का असर पडता है यदि आप ही घबरा जाएंगे तो आपको देख उनकी भी घबराहट और भी बढ सकती है|

अस्थमा का इलाज

होमियोपैथी में अस्थमा का कारगर इलाज है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अस्थमा के अलग-अलग लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज किया जाए तो बीमारी पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है। आमतौर पर माना जाता है कि होमियोपैथी से इलाज में वक्त ज्यादा लगता है, लेकिन इस पैथी में भी अस्थमा की कुछ ऐसी दवाएं उपलब्ध है जो तुरंत राहत देती हैं। इससे सांस की नली और फेफड़ों की जकड़न खुल जाती है और मरीज आराम से सांस ले सकता है। उचित उपचार के साथ अस्थमा के लक्षणों और उसके दौरों में सुधार आता है बीमारी की गंभीरता पर उपचार की अवधि निर्भर करती है, उस उपचार के साथ कोई भी व्यक्ति एक सामान्य जीवन जी सकता है पर एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि उपचार न कराने पर ये बीमारी गंभीर रूप ले सकती है|

होम्योपैथिक औषधियां: आर्सेनिक-एलब्म, बलाट्टा-ओरिएनटेलिस, नेट्रम सल्फ़, ग्राइन्डेलिया, लोबिलिया, सपोन्जिया, सटिक्टा, रसटाक्स, हिपर सल्फर, केसिया-सोफ़ेरा, आदि लक्षणानुसार लाभप्रद है। यह दवायें केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है। कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे, क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है !

Friday, October 22, 2010

लाइलाज नहीं डिप्रेशन


डिप्रेशन यानी हताशा या अवसाद। मेडिकल साइंस में इस रोग को सिंड्रोम माना जाता है। इससे पीड़ित व्यक्ति को अकेलापन खलता है, उदासी घेरे रहती है। यह आज के आधुनिक युग का प्रसाद है हर व्यक्ति के लिए, आज के युग के साधन जहाँ आराम देते हैं ,वही इन साधनों को जुटाने की चाह देती है चिंता। टेंशन और चाह पूरी न हो या कुछ अधूरा सा जीवन लगने लगे तो डिप्रेशन हावी हो जाता है| कई बार मन अवसाद ग्रस्त होता है और अपने आप ठीक हो जाता है| लेकिन कई बार अवसाद मन में कहीं गहरे तक बैठ जाता है। किसी बात को लेकर मन उदास होना या तनाव होना सामान्य बात है। लेकिन, जब यह उदासी और तनाव लंबे समय तक बना रहे, तो आप कहीं डिप्रेशन के शिकार न हो जाएं , इसके लिए पहले इन लक्षणों को देखें :-

लक्षण:
- उन बातों में रूचि कम हो जाना, जिनमें आप पहले आनंद लेते थे।
- बेचैनी अनुभव करना।
- बहुत अधिक सोना अथवा नींद न आना।
- हर समय थकान अथवा शक्तिहीनता का अनुभव करना।
- वजन बढ़ना अथवा घटना।
- भूख कम होना।
- ध्यान केंद्रित करने अथवा याद करने में कठिनाई।
- आशाहीनता, अपराध बोध, बेकार अथवा असहाय होने का अनुभव करना।
- सिर दर्द, पेट दर्द, शौच में समस्या अथवा ऎसा दर्द होना, जिसमें उपचार से लाभ नहीं होता।

यदि आपके ऎसे लक्षण दो सप्ताह से अधिक समय तक रहते हैं अथवा यदि आपके मन में स्वयं को अथवा अन्य लोगों को क्षति पहुंचाने के विचार आते हैं, तो आप अवसाद (डिप्रेशन) से ग्रस्त हो सकते हैं।

कारण:
डिप्रेशन के पीछे जैविक आनुवांशिक और मनोसामाजिक कारण होते हैं। यही नहीं बायोकेमिकल असंतुलन के कारण भी डिप्रेशन घेर सकता है। ऐसे में दिमाग हमेशा नकारात्मक बातें सोचने लगता है। यह भी देखा गया है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में डिप्रेशन की परेशानी ज्यादा और जल्दी घर करती है। मोटे अनुमान के अनुसार 10 पुरुषों में एक जबकि 10 महिलाओं में हर पांच को डिप्रेशन की आशंका रहती है। दरअसल, पुरुष अपना डिप्रेशन स्वीकार करने में संकोच करते हैं जबकि महिलाएं दबाव और शोषण के चलते जल्दी डिप्रेशन में आ जाती हैं। यह समस्या महानगरों में ज्यादा तेजी से पैर पसारती जा रही है। महिलाओं में डिप्रेशन होने की कुछ खास वजहें हैं। इसमें मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर और बायपोलर मूड डिसऑर्डर खास हैं। मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर में ध्यान एकाग्र करने में परेशानी, आत्म सम्मान में कमी महसूस होना और ऊर्जा की कमी का अहसास होता है। वहीं, बायपोलर मूड डिसऑर्डर में गुस्सा जल्दी आता है। चिड़चिड़ापन महसूस होता है और दिल इस बात को नहीं मानता कि वह परेशान है। महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले हर उम्र में डिप्रेशन के ज्यादा मामले होने के पीछे बचपन से मानसिक और शारीरिक शोषण, अपनी बात कहने की झिझक, यौवन में प्रवेश, प्रेगनेंसी और रोज के तनाव जैसे कारण अहम हैं। इसके चलते कभी-कभी उनमें आत्महत्या की इच्छा जोर मारने लगती है। इसलिए पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का डिप्रेशन ज्यादा खतरनाक होता है। हालांकि मंदी और कॉम्पटीशन के दौर में डिप्रेशन अब युवाओं को भी अपना शिकार बनाने लगा है इसलिए कोशिश यह रखनी चाहिए कि आप खुशनुमा पलों की तलाश करें और पॉजिटिव सोच रखें। डिप्रेस्ड मूड के दौरान कोई भी शख्स खुद को लाचार और निराश महसूस करता है। दरअसल दिमाग में मौजूद रसायन नर्वस सिस्टम के जरिए शरीर को संदेश भेजने में अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन इन रसायनों में असंतुलन पैदा होने से दिमाग में गड़बड़ हो जाती है। डिप्रेशन अक्सर दिमाग के न्यूरोट्रांसमीटर की कमी के कारण भी होता है। न्यूरोट्रांसमीटर वह रसायन होते हैं जो दिमाग और शरीर के दूसरे हिस्से के बीच तालमेल कायम करते हैं खुशी के दौरान न्यूरोट्रांसमीटर्स नर्वस सिस्टम को केमिकल भेजता है। जब यह केमिकल कम हो जाता है तो डिप्रेशन के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके अलावा नोरएपिनेफ़्रिन नाम के रसायन से हममें चौकन्नापन और उत्तेजना आती है और इसके असंतुलन से थकान और उदासी आती है और चिड़चिड़ाहट होने लगती है। इसके अलावा सेरोटोनिन हारमोन भी एक वजह है जब इस हारमोन का स्तर खून में कम हो जाता है तो हमारा मूड बिगड़ने लगता है और हार्ट अटैक तक की आशंका हो सकती है। शरीर में मौजूद कुछ और हारमोन के बीच भी जब असंतुलन होता है तो इसका असर हमारे मूड और खुशी पर पड़ता है जिनमें एड्रेलिन और डोपामाइन खास हैं।

बेहतरी के लिए कदम:
बेहतर महसूस करने के लिए पहला कदम किसी ऎसे व्यक्ति से बातचीत करना हो सकता है, जो आपकी सहायता कर सके। वह कोई चिकित्सक अथवा परामर्शदाता (काउंसलर) हो सकता है। आपकी देखभाल में दवाएं तथा काउंसलिंग शामिल हो सकते हैं।
क्या करें:
- स्वास्थ्यप्रद भोजन करें तथा जंक फूड से परहेज करें।
- भरपूर मात्रा में पानी पिएं।
- वाइन और नशीले पदार्थो के सेवन से बचें।
- हर रात 7 से 8 घंटे सोने का प्रयास करें।
- सक्रिय रहें, भले ही आपका ऎसा करने का मन न हो।
- अपनी दिन भर की गतिविधियों की योजना बनाएं।
- प्रतिदिन अपने लिए एक छोटा सा लक्ष्य निर्धारित करें, जो आप कर सकते हैं।
- अकेले रहने से बचें, किसी सहायक समूह में शामिल हों।
- प्रार्थना करें अथवा ध्यान लगाएं।
- स्पोर्ट्स, पेंटिंग्स, गार्डनिंग, टूरिज्म, म्यूजिक या रीडिंग जैसी हॉबीज विकसित करें।
- अपनी भावनाएं परिजनों अथवा मित्रों को बताएं। अपने परिवार तथा मित्रों को अपनी सहायता करने दें।
- 'क्षमा करो भूल जाओ' यानी 'फॉरगिव एंड फॉरगेट' का सिद्धांत अपनाएँ।

होम्योपैथी किस तरह है कारगार
डिप्रेशन कि स्थिति में होम्योपैथी अत्यन्त कारगर है। चूँकि होम्योपैथी में व्यक्तित्व विशेषता के आधार पर चिकित्सा की जाती है अतः यह अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इससे मस्तिष्क के उच्च केंद्र जो सोचने और समझने का कार्य करते हैं में उल्लेखनीय वृद्वि होती है। पहले यह माना जाता था कि डिप्रेशन में दी जाने वाली दवाईयां चाहे वह एलोपैथी हो या होम्योपैथी नशीली होती हैं और इनकि आदत बन जाती है परंतु आजकल अच्छी नई दवाईयां निकल रही है जो बिल्कुल सुरक्शित है। सामान्यत: इन दवाईयों का दो से तीन हफ्ते बाद असर चालू होता है और कम से कम 6 माह तक लगातार यह दवाईयां लेनी पड़ती है। इस स्थिति में सामान्यतः उपयोगी दवाएँ कालि फोस, ईग्नेशिया, नेट्र्म म्युर, औरम मेट, लैकेसिस, स्ट्रामोनियम, मेडोराइनम आदि हैं। मेमोरि बूस्टर नाम कि दवा के दो चम्म्च सुबह-शाम लगातार तीन महिने लेने पर काफ़ि लाभ होता है और वह भी बिना किसी दुस्प्रभाव के। यह ब्राह्मि, शन्खपुश्पी, अश्व्गन्धा एवं चार अन्य होम्योपैथिक दवाईयों का अद्भुत मिश्र्ण हे जो दिमाग को ताकत प्रदान करता हे और याद्दाश्त भी बढाता हे। यह जान ले कि ये दवाईयां आपको प्राकृतिक दिमागी संतुलन बनाने में मदद करती है। इन्हें केवल डॉक्टरी सलाह के अनुसार लेना चाहिए। इस प्रकार चुनी हुई दवा को जब उचित पोटेंसी में दिया जाता है तब वांछित परिणाम अवश्य प्राप्त होते हैं। होम्योपैथी सहज, सस्ती और संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। ये औषधियाँ शरीर के किसी एक अंग या भाग पर कार्य नहीं करतीं, बल्कि रोगी के संपूर्ण लक्षणों की चिकित्सा करती है।

Tuesday, October 12, 2010

जोड़ों का दर्द एवं होम्योपैथी


हमारे देश में बडी उम्र के लोगों के बीच ऑर्थराइटिस आम बीमारी है। 50 साल से अधिक उम्र के लोग यह मान कर चलते हैं कि अब तो यह होना ही था। खास तौर से स्त्रियां तो इसे लगभग सुनिश्चित मानती हैं। ऑर्थराइटिस का मतलब है जोड में दर्द, सोजिश एवं जलन। यह शरीर के किसी एक जोड में भी हो सकता है और ज्यादा जोडों में भी। इस भयावह दर्द को बर्दाश्त करना इतना कठिन होता है कि रोगी का उठना-बैठना तक दुश्वार हो जाता है।

ऑर्थराइटिस मुख्यत: दो तरह का होता है - ऑस्टियो और रिह्यमेटाइड ऑर्थराइटिस। कई बार इसमें मरीज की हालत इतनी बिगड जाती है कि उसके लिए हाथ-पैर हिलाना भी मुश्किल हो जाता है। रिह्यमेटाइड ऑर्थराइटिस में तो यह दर्द उंगलियों, कलाइयों, पैरों, टखनों, कूल्हों और कंधों तक को नहीं छोडता है। यह बीमारी आम तौर पर 40 वर्ष की उम्र के बाद होती है, लेकिन यह कोई जरूरी नहीं है। खास तौर से स्त्रियां इसकी ज्यादा शिकार होती हैं।

घट जाती है कार्यक्षमता: ऑर्थराइटिस के मरीज की कार्यक्षमता तो घट ही जाती है, उसका जीना ही लगभग दूभर हो जाता है। अकसर वह मोटापे का भी शिकार हो जाता है, क्योंकि चलने-फिरने से मजबूर होने के कारण अपने रोजमर्रा के कार्यो को निपटाने के लिए भी दूसरे लोगों पर निर्भर हो जाता है। अधिकतर एक जगह पडे रहने के कारण उसका मोटापा भी बढता जाता है, जो कई और बीमारियों का भी कारण बन सकता है।

बाहरी कारणों से नहीं: कई अन्य रोगों की तरह ऑर्थराइटिस के लिए कोई इनफेक्शन या कोई और बाहरी कारण जिम्मेदार नहीं होते हैं। इसके लिए जिम्मेदार होता है खानपान का असंतुलन, जिससे शरीर में यूरिक एसिड बढता है। जब भी हम कोई चीज खाते या पीते हैं तो उसमें मौजूद एसिड का कुछ अंश शरीर में रह जाता है। खानपान और दिनचर्या नियमित तथा संतुलित न हो तो वह धीरे-धीरे इकट्ठा होता रहता है। जब तक एल्कलीज शरीर के यूरिक एसिड को निष्क्रिय करते रहते हैं, तब तक तो मुश्किल नहीं होती, लेकिन जब किसी वजह से अतिरिक्त एसिड शरीर में छूटने लगता है तो यह जोडों के बीच हड्डियों या पेशियों पर जमा होने लगता है।तब चलने-फिरने में चुभन और टीस होती है। यही बाद में ऑर्थराइटिस के रूप में सामने आता है। शोध के अनुसार 80 से भी ज्यादा बीमारियां ऑर्थराइटिस के लक्षण पैदा कर सकती हैं। इनमें शामिल हैं रिह्यमेटाइड ऑर्थराइटिस, ऑस्टियो ऑर्थराइटिस, गठिया, टीबी और दूसरे इनफेक्शन। 

बदलें जीने का ढंग: इससे निपटने का एक ही उपाय है और वह है उचित समय पर उचित खानपान। इनकी बदौलत एसिड क्रिस्टल डिपॉजिट को गलाने और दर्द को कम करने में मदद मिलती है। इसलिए बेहतर होगा कि दूसरी चीजों पर ध्यान देने के बजाय खानपान की उचित आदतों पर ध्यान दिया जाए, ताकि यह नौबत ही न आए, फिर भी ऑर्थराइटिस हो गया हो तो ऐसी जीवन शैली अपनाएं जो शरीर से टॉक्सिक एसिड के अवयवों को खत्म कर दे। इसके लिए यह करें-

खानपान का रखें खयाल: ऑर्थराइटिस से निपटने के लिए जरूरी है ऐसा भोजन जो यूरिक एसिड को न्यूट्रल कर दे। ऐसे तत्व हमें रोजाना के भोजन से प्राप्त हो सकते हैं। इसके लिए विटमिन सी व ई और बीटा कैरोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थो का इस्तेमाल किया जाना चहिए। इसके अलावा इन बातों पर भी ध्यान दें - ऐसी चीजें खाएं जिनमें वसा कम से कम हो। कुछ ऐसी चीजें भी होती हैं जिनमें वसा होता तो है लेकिन दिखता नहीं। जैसे-
1. केक, बिस्किट, चॉकलेट, पेस्ट्री से भी बचें।
2. दूध लो फैट पिएं। योगर्ट और चीज आदि भी अगर ले रहे हों तो यह ध्यान रखें कि वह लो फैट ही हो।
3. चीजों को तलने के बजाय भुन कर खाएं। कभी कोई चीज तल कर ही खानी हो तो उसे जैतून के तेल में तलें।
4. चोकर वाले आटे की रोटियों, अन्य अनाज, फलों और सब्जियों का इस्तेमाल करें।
5. चीनी का प्रयोग कम से कम करें।

उपचार:
ऑर्थराइटिस कई किस्म का होता है और हरेक का अलग-अलग तरह से उपचार होता है। सही डायग्नोसिस से ही सही उपचार हो सकता है। सही डायग्नोसिस जल्द हो जाए तो अच्छा। जल्द उपचार से फायदा यह होता है कि नुकसान और दर्द कम होता है। उपचार में दवाइयाँ, वजन प्रबंधन, कसरत, गर्म या ठंडे का प्रयोग और जोड़ों को अतिरिक्त नुकसान से बचाने के तरीके शामिल होते हैं। जोड़ों पर दबाव से बचें। जितना वजन बताया गया है, उतना ही बरकरार रखें। ऐसा करने से कूल्हों व घुटनों पर नुकसान देने वाला दबाव कम पड़ता है। वर्कआउट करें। कसरत करने से दर्द कम हो जाता है, मूवमेंट में वृद्धि होती है, थकान कम होती है और आप पूरी तरह स्वस्थ रहते हैं। मजबूती प्रदान करने वाली कई कसरतें हैं गठिया के लिए। अपने डॉक्टर या फिटनेस विशेषज्ञ से उसके बारे में मालूम कर लें। स्ट्रैचिंग एक्सरसाइज से जोड़ व मांसपेशियाँ लचीले रहते हैं। इससे तनाव कम होता है और रोजाना की गतिविधियाँ जारी रखने में मदद मिलती है। गठिया में ज्यादातर लोगों के लिए सबसे अच्छी कसरत चहलकदमी है। इससे कैलोरी बर्न हो जाती है। मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं और हड्डियों में घनत्व बढ़ जाता है। पानी में की जाने वाली कसरतों से भी ताकत आती है, गति में वृद्धि होती है और जोड़ों में टूटफूट भी कम होती है। हाल के शोधों से मालूम हुआ है कि विटामिन सी व अन्य एंटीऑक्सीडेंट ऑस्टियो-आर्थराइटिस के खतरे को कम करते हैं और उसे बढ़ने से भी रोकते हैं। इसलिए संतरा खाओ या संतरे का जूस पियो। ध्यान रहे कि संतरा व अन्य सिटरस फल फोलिक एसिड का अच्छा स्रोत हैं। आपके आहार में पर्याप्त कैल्शियम होना चाहिए। इससे हड्डियाँ कमजोर पड़ने का खतरा नहीं रहता। नाश्ता अच्छा करें। फल, ओटमील खाएँ और पानी पीएँ। जहाँ तक मुमकिन हो कैफीन से बचें। वे जूते न पहने जो आपका पंजा दबाते हों और आपकी एड़ी पर जोर डालते हों। पैडेड जूता होना चाहिए और जूते में पंजा भी खुला-खुला रहना चाहिए। सोते समय गर्म पानी से नहाना मांसपेशियों को रिलैक्स करता है और जोड़ों के दर्द को आराम पहुँचाता है। साथ ही इससे नींद भी अच्छी आती है।

होम्योपैथिक औषधियाँ: - लक्षणानुसार ब्रायोनिया, रस-टाक्स, काल्मिया लैटविया, कैक्टस ग्रेड़ीफ्लोरा, डल्कामारा, लाईकोपोडियम, काली कार्ब, मैगफास, स्टेलेरिया मिडि़या, फेरम-पिक्रीरीकम इत्यादि अत्यंत कारगर होम्योपैथिक दवाएँ हैं।
उपरोक्त दवाये केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है .कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे,
क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है !

Saturday, September 4, 2010

बचिए आई-फ़्लु के प्रकोप से


आँख भगवान की दी गई आवश्यक अवयवों में से एक है और इसकी प्रमुखता का अंदाज तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिना आँख सब बेकार। तभी तो इस अवयव को सुरक्षित एवं रोगों से बचाने की जिम्मेदारी इतनी जरूरी है। आजकल आई-फ़्लु का कहर जोरों से है, रोजाना करीब दस-पन्द्र्ह मरीज इसी बिमारी से पीडित आ रहें हैं। सभी जानते हैं गर्मी-सर्दी के संधिकाल में आई-फ़्लु की शुरुआत होती है। जिसे 'पिंक आई' या 'कंजंक्टिवाइटिस' भी कहा जाता है; आंख की बाहरी पर्त कंजंक्टिवा और पलक के अंदरूनी सतह के संक्रमण को कहते हैं। साधारण भाषा में इसे "आँख आना" भी कहते हैं। यह प्रायः एलर्जी या संक्रमण (सामान्यतया विषाणु किंतु यदा-कदा जीवाणु से) द्वारा होता है। यह संक्रमण अधिकांशतः मानवों में ही होता है, किंतु कहीं कहीं कुत्तों में भी पाया गया है। इसकी वजह से आंखें लाल, सूजन युक्त, चिपचिपी [कीचड़युक्त] होने के साथ-साथ उसमें बाल जैसी चुभने की समस्याएं हो सकती हैं।

इस बीमारी की कुछ श्रेणियाँ हैं -

1. कैटरल (सर्दी या ठंड लगने के कारण)
2. पुरुलेन्ट (पीव स्त्रावी)
3. ग्रैन्यूलर (दानामय)
4. डिफ्‍टोरिक
5. फ्लिकट्यिलर (छोटी-छोटी दानों के साथ)

कैटरल कंजंक्टिवाइटस इतनी खतरनाक नहीं है इसलिए सावधानी ही उपाय है। आँखों में कुछ गिर जाने से रोग होने पर उस वस्तु को निकाल देने से रोग दूर हो जाता है। कभी आँख में उत्तेजक तरल पदार्थ या क्षारीय पदार्थ गिर जाने पर शहद डालने से या उस आँख को साफ पानी से धोने पर रोग दूर हो जाता है।
होम्योपैथिक औषधि : एकोनाईट, यूफ्रेसिया, मर्क सौल, मर्क कॉर, एपिस (इन्फ्‍लामेशन होने को) रसटक्स आर्सेनिक इत्यादि की 30 पावर दिन में 3 बार या 4 बार आयोग्यकारक होती है पर इसे लक्षणानुसार लेना चाहिए।

2. दानामय कंजंक्टिवाइटस : इसमें पलकों के भीतर दानामय छोटी-छोटी फुंसियाँ या दाने हो जाते हैं। पहले आँखें फूल जाती हैं। जलन, चुभन होती है। रोशनी सहन नहीं हो पाती। आँखों से पानी जैसा पस निकलता है। बहुत बार पलकें भीतर की ओर सिकुड़ जाती हैं। इस अवस्था को एंट्रोपियन कहते हैं। इसका कारण विशुद्ध वायु के सेवन का अभाव, अखाद्य आहार करना, धूप और धूल में अधिक देर घूमना। यह एक बार अच्छा हो जाने के बाद पुन: उभर सकता है। लक्षणानुसार यूफ्रेशिया का लोशन एवं यूफ्रेशिया 30 दिन में तीन बार आँख में डालने एवं लगाने से अत्यधिक लाभ मिलता है। अन्य औषधियाँ जैसे पल्सेटिला, हियर सल्फर, बेलाडॅना, केल्केरिया कार्ब की कम पावर की गोलियाँ आरोग्यकारी होती हैं। अरजेन्ट्‍स नाईट्रिकम की 2 बूँद आधे आउंस डिस्टील्ड वाटर में देकर बाहरी प्रयोग करने से फायदा होता है।

3. पुरुलेन्ट कंजंक्टिवाइटस (सड़नशील कंजंक्टिवाइटस) : इसे इजिप्सयन अप्थैल्मिया के नाम से भी जाना जाता है।
कारण : किसी विषाक्त वस्तु के शरीर के अंदर प्रवेश करने अथवा आँखों में लगकर यह रोग उत्पन्न होता है। साथ ही यह संक्रामक रोग भी है। रोगग्रस्त व्यक्ति के संसर्ग से स्वस्थ व्यक्ति भी चपेट में आ जाता है। प्रमेह या उपदंश विष से भी यह रोग हो सकता है। गनोरियल या प्रमेहजनित आँख के प्रदाह एक से ही मालूम पड़ते हैं परंतु शीघ्र ही इसका रूप बदल जाता है।

उद्‍भव के स्थान : हॉस्पिटल, सेना-निवास, स्कूल, कॉलेज, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड एवं जहाँ लोगों का जमाव होता है, वहीं पर इसका संक्रमण शीघ्र होता है।
लक्षण - पहले आँख से श्लेष्मा निकलता है वह क्रमश: पस में परिणत होता है एवं इसका स्त्राव बढ़ता जाता है।

होम्योपैथिक चिकित्सा : मर्कुरियस वाईवस, मर्कुरियस रूब्रम या मर्क कौर के 30 पावर 3 बार लेने पर एवं उपरोक्त मर्क कौर की 2 या 3 पावर की 10 बूँद या 10 ग्रेन 1 आउंस डिस्टील्ड वाटर में देकर आँख धोने से विशेष लाभ मिलता है। अन्य दवाएँ - हिपर सल्क एवं कैल्केरिया सल्फ भी उत्तम औषधि है।

4. फिलिक्ट न्यूलर आप्थैलमिया -
लक्षण : आँखों के ऊपर दाने हो जाते हैं। यह एक प्रकार का ट्‍यूबर्कूलर रोग है। इसमें रोगी के लिम्फैटिक गलेण्ड्‍स कीटाणुओं से संक्रमित हो जाते है।
होम्योपैथिक औषधियां : बेलाडोना, मर्क कॉर, रसटाक्स, ग्रेफाइट्‍स, हिपर सल्फर, एसिड नाईट्रिकम, कैल्केरिया, आर्सेनिक लक्षणानुसार लाभप्रद है।

सावधानी : बैक्टीरियल और वायरल कंजंक्टिवाइटिस बहुत तेजी से फैलने वाला रोग है। यह परिवार और डॉक्टर की क्लिनिक में आए लोगों में बहुत तेजी से फैल सकता है। यदि आप या आपका बच्चा "आई इंफेक्शन" का शिकार हो गया है, तो परिवार के सभी सदस्य साफ सफाई पर खास तवज्जों दें। अच्छी तरह हाथ धोएं, रोगी के टॉवेल, रूमाल का इस्तेमाल न करें और तकिए का कवर रोजाना बदलें। यूफ्रेशिया या ममिरा आई- ड्राप्स दिन में दो-तीन बार डालते रहें। स्विमिंग पुल में जाने से बचें। धैर्य रखें, डॉक्टर के बताएं निर्देशों का पालन करें, कुछ दिनों में कंजंक्टिवाइटिस ठीक हो जाती है।

Thursday, August 12, 2010



बारिश में बीमारी से करें बचाव

मानसून आ गया है और झमाझम बारिश भी शुरू हो गई है। जगह-जगह पानी का भराव और ट्रैफिक जाम इन दिनों आम है। ऐसे में ढेरों बीमारियां भी हमला बोलने को तैयार रहती हैं। मलेरिया, डेंगू, जॉइंडिस, हैजा जैसी बीमारियां पानी से ही फैलती हैं इसलिए जहां सुहानी बारिश मौसम को मजा देती है वहीं बीमारियों की के वायरस भी पानी में पलते-बढ़ते हैं।

बरसात में बीमारी फैलने का सबसे बड़ा जरिया दूषित पानी है। दूषित पानी से कई बीमारियां घर के अंदर पहुंच जाती हैं। इसके साथ कीचड़ और गंदे पानी में रहने से त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं। बरसात में सबसे ज्यादा मामले मलेरिया के होते हैं।

मलेरिया एनाफिलीज मच्छर से होता है। मलेरिया का प्रमुख लक्षण यह है कि एक निश्चित समय पर मरीज को बुखार आता है, सिरदर्द और मितली आने के साथ कंपकपी के साथ ठंड लगती है। मरीज के हाथ-पैरों में दर्द के साथ कमजोरी महसूस होती है।

बरसात के दिनों में डेंगू बुखार भी खूब फैलता है। मलेरिया की तरह यह भी मच्छर के काटने से फैलता है। वायरस से फैलने वाला डेंगू चार किस्म को होता है। यह बीमारी एडीज मच्छर से फैलती है जो ज्यादातर दिन में काटता है।
डेंगू में तेज बुखार, शरीर में और सिर में तेज दर्द होता है। बड़ों के मुकाबले यह बीमारी बच्चों में ज्यादा होती है। आम बोलचाल की भाषा में इसे हड्डी तोड़ बुखार भी कहा जाता है क्योंकि इसके कारण शरीर और जोड़ों में खूब दर्द होता है।
पीलिया भी बरसात के दिनों में होने वाली आम बीमारी है। पीलिया रोग यानी जॉइंडिस में व्यक्ति के शरीर में खून की कमी होने लगती है। भूख मर जाती है और आंखें, नाखून, चेहरा, हथेलियां और धीरे-धीरे पूरा शरीर पीला होने लगता है।
पीलिया के शिकार व्यक्ति की भूख कम हो जाती है और शरीर में पानी और खून की बेहद कमी हो जाती है। अगर समय पर इलाज न मिले तो मरीज की मौत भी हो सकती है। इसके अलावा टाइफाइड भी दूषित पानी से हाने वाली एक बड़ी बीमारी है।

इस बीमारी में मरीज को पहले बुखार आता है जो पांचवें दिन तक लगातार बढ़ जाता है। सिरदर्द के साथ पेट में दर्द होता है। दूसरा हफ्ता आने तक मरीज के बदन पर दाग पड़ने लगते हैं। ऐसे हालात में पहुंचने से पहले ही तुरंत डॉक्टर की मदद लेनी चाहिए।

इन बीमारियों से बचना ही सबसे अच्छी स्थिति है लेकिन सावधानी के बाद भी यदि बीमारी हो जाए तो घबराने के बजाय डॉक्टर के परामर्श से इलाज कराकर जल्द ही सेहत में सुधार किया जा सकता है। मलेरिया से बचने के लिए मच्छरदानी में सोएं, और घर के आसपास पानी न जमा होने दें। घर के पास अगर पानी जमा भी होता है तो उसमें मच्छर और कीटाणु न पनपने पाएं इसके लिए दवाओं का छिड़काव कराएं।

मच्छर काटने के कम से कम 14 दिन बाद मलेरिया के लक्षण सामने आते हैं। अगर डेंगू बुखार है तो तुरंत डॉक्टर की मदद लें और उचित दवा लेकर बुखार कम करें। रोगी को डिस्प्रिन, एस्प्रीन कभी ना दें। हैजा से बचने के लिए पानी को उबाल कर पिएं और खाने को पूरी तरह पकाकर खाएं। साफ सफाई का विशेष ध्यान रखें। पीलिया होने पर खाने में खास ध्यान देने की जरूरत होती है। पानी उबाल कर पीएं और हल्का खाना खाएं। तले और मसालेदार खाने से बचें। बरसात के मौसम में बीमारियों से बचने के लिए बाहर का खाना बिल्कुल नहीं खाना चाहिए।

Wednesday, July 28, 2010

सफेद दाग: छुपाएं नहीं, इलाज करायें।

सफेद दाग जिसे की आयुर्वेद मै श्वेत कुष्ठ के नाम से जानते है एक ऐसी बीमारी है जिससे कोई भी व्यक्ति बचना चाहेगा..इस बीमारी मैं व्यक्ति की त्वचा पर सफेद चकते बनने प्रारंभ हो जाते है ..और कई वार यह पूरे पूरे शरीर पर फैल जाती है। सफेद दाग विचलित कर देने वाला विकार है, पर हरेक सफेद दाग एक सा नहीं होता। कुछ त्वचा पर पड़े दबाव, किसी कपड़े से हुई एलर्जी, संक्रमण या अन्य कारणों से होते हैं, तो कुछ शरीर की इम्यून प्रणाली के बागी होने से उपजते हैं। यह स्थिति विटिलिगो या ल्यूकोडर्मा कहलाती है, जिसे लोग फुलवैरी या गलती से कच्चा कोढ़ भी कह देते हैं। ‘ल्यको का मतलब है ‘सफेद’ और डर्मा का मतलब है ‘खाल’। ल्यूकोडर्मा में असामान्य रूप से खाल का रंग सफेद होने लगता है। शरीर के जिस हिस्से पर इसका प्रभाव पड़ता है वहाँ से मेलेनोसाइटिस पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं। सफेद दाग सामाजिक अभिशाप नहीं, एक शारीरिक रोग व विकार है। यह रोग छूने से नहीं फैलता, इसमें सिर्फ चमड़ी का रंग ही सफेद हो जाता है।



कारण:ल्यूकोडर्मा किस वजह से होता है, इसका कारण अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन शरीर पर इन सफेद धब्बों के कुछ संभव कारण हैं

1. खून में मेलेनिन नामक तत्व का कम हो जाना।
2. अत्यधिक कब्ज।
3. लीवर का ठीक से कार्य ना कर पाना या पीलिया।
4. पेट से संबंधित बीमारी या पेट में कीड़ों का होना।
5. टाइफाइड जैसी बीमारियाँ जिन से पेट या आंतों में संक्रमण होने का खतरा हो।
6. अत्याधिक तनाव
7. यह आनुवंशिक भी हो सकता है।

निवारण:
1.खट्टे खाद्य पदार्थों का सेवन करने से बचना चाहिए। इस तरह के पदार्थ शरीर में मेलेनिन की मात्रा को कम करते हैं।
2. माँसाहारी भोजन भी हमारे शरीर में मौजूद सेल्स के लिए बाहरी तत्व की तरह होता है।
3. खाद्य पदार्थों में उपयोग किए जाने वाले रंग भी हानिकारक साबित हो सकते हैं।
4. पोषक तत्व जैसे बीटा कैरोटिन (गाजर में), लाइकोपिन (टमाटर में), विटामिन ई एवं सी (ग्रेप सीड एक्स्ट्रेक्ट में उच्च मात्रा में उपलब्ध) और अन्य खनिज तत्वों को आहार में शामिल करना चाहिये।
5. कई बार ल्यूकोडर्मा के रोगी दवाइयां लेना शुरू तो करते हैं पर थोड़ा आराम मिलते ही बंद कर देते हैं। इससे फिर से तकलीफ बढ़ने का खतरा बना रहता है। ल्यूकोडर्मा के रोगियों को तब तक दवाइयां लेनी चाहिए जब तक पूरा कोर्स न ख़त्म हो जाए।



होम्योपैथिक चिकित्सा
उपचार के लिए होम्योपैथी में बहुत सी दवाएं हैं। कुछ खाने की, तो कुछ लगाने की। उपचार करने में दो तरह की औषधिया काम में लाई जाती है…एक वे जो  रोग प्रति रोधक तंत्र में फेरबदल कर के व्याधी के बढने को रोकती है….और दूसरी वे जो गये हुए रंग को वापिस बनाती है। किसी विशेषज्ञ से उपचार कराया जाए तो लगभग 50 प्रतिशत मामलों में दाग मिट जाते हैं, लेकिन यह सुधार धीरे-धीरे होता है। कुल मिलाकर यह एक ठीक होने लायक बीमारी है…लाईलाज नहीं है…और यदि सही समय पर उपचार प्रारंभ किया जाये तो इसमें अच्छे परिणाम मिलते हैं। होम्योपैथीक दवाएँ जो लक्षणागत ल्यूकोडर्मा में काम करती हैं वे इस प्रकार हैं: - आर्सेनिक एल्बम, नेट्रम म्यूर, इचिनेसिया, लाईकोपोडियम, आर्सेनिक-सल्फ़-फ़्लेवम, सोरिलिया, नेट्रम सल्फ, सिलिसिया, सल्फर आदि।

उपरोक्त दवाये केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है।कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे, क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है !


डा. नवनीत बिदानी
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